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यदूव॑ध्यमु॒दर॑स्याप॒वाति॒ य आ॒मस्य॑ क्र॒विषो॑ ग॒न्धो अस्ति॑। सु॒कृ॒ता तच्छ॑मि॒तार॑: कृण्वन्तू॒त मेधं॑ शृत॒पाकं॑ पचन्तु ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad ūvadhyam udarasyāpavāti ya āmasya kraviṣo gandho asti | sukṛtā tac chamitāraḥ kṛṇvantūta medhaṁ śṛtapākam pacantu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। ऊव॑ध्यम्। उ॒दर॑स्य। अ॒प॒ऽवाति॑। यः। आ॒मस्य॑। क्र॒विषः॑। ग॒न्धः। अस्ति॑। सु॒ऽकृ॒ता। तत्। श॒मि॒तारः॑। कृ॒ण्व॒न्तु॒। उ॒त। मेध॑म्। शृ॒त॒ऽपाक॑म्। प॒च॒न्तु॒ ॥ १.१६२.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:162» मन्त्र:10 | अष्टक:2» अध्याय:3» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (शमितारः) प्राप्त हुए अन्न को सिद्ध करने बनानेवाले आप (यः) जो (उदरस्य) उदर में ठहरे हुए (आमस्य) कच्चे (क्रविषः) क्रम से निकलने योग्य अन्न का (गन्धः) गन्ध (अपवाति) अपान वायु के द्वारा जाता निकलता है वा (यत्) जो (ऊवध्यम्) ताड़ने के योग्य (अस्ति) है तत् उसको (कृण्वन्तु) काटो (उत) और (मेधम्) प्राप्त हुए (शृतपाकम्) परिपक्व पदार्थ को (पचन्तु) पकाओ, ऐसे उसे सिद्ध कर (सुकृता) सुन्दरता से बनाये हुए पदार्थों को खाओ ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य उदररोग निवारने के लिये अच्छे बनाये अन्न और ओषधियों को खाते हैं, वे सुखी होते हैं ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे विद्वांसः शमितारो भवन्तो य उदरस्योदरस्थस्यामस्य क्रविषो गन्धोऽपवाति यदूवध्यमस्ति वा तत्तानि कृण्वन्तु। उतापि मेधं शृतपाकं पचन्त्वेवं विधाय सुकृता भुञ्जताम् ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) (ऊवध्यम्) वधितुं ताडितुमर्हम् (उदरस्य) (अपवाति) अपगतं वाति गच्छति (यः) (आमस्य) अपक्वस्य (क्रविषः) क्रमितुं योग्यस्याऽन्नस्य (गन्धः) (अस्ति) (सुकृता) सुष्ठुकृतानि निष्पादितानि (तत्) तानि (शमितारः) संगतान्नस्य निष्पादितारः (कृण्वन्तु) हिंसन्तु (उत) (मेधम्) संगतम् (शृतपाकम्) शृतश्चासौ पाकश्च तम्। पुनरुक्तमतिसंस्कारद्योतनार्थम्। (पचन्तु) परिपक्वं कुर्वन्तु ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या उदररोगनिवारणाय सुसंस्कृतान्यन्नान्यौषधानि च भुञ्जते ते सुखिनो जायन्ते ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे उदररोग निवारण करण्यासाठी संस्कारित केलेले अन्न व औषधी खातात ती सुखी असतात. ॥ १० ॥